हमेशा ही ‘मानव’ एक जिज्ञाषु प्राणी के रुप में जाना जाता है। साथ ही हर किसी के मन में ये सवाल भी जरुर आता होगा कि आखिर ‘पशु’ और ‘मानव’ में क्या अंतर और समानता है? मनुष्य के रुप में एक जीव का जब जन्म होता है तो वह सामान्यतः बहुत कमजोर होता है। अगर उसकी तुलना अन्य जीवों से करें तो! समय के साथ एक मानव में क्रमिक विकास होता है और वह धीरे-धीरे (सीखकर) बुद्धिमान होते जाता है। अब प्रश्न उठता है, क्या मानव जन्म से ही बुद्धिमान होता है या इसमें कोई बड़ा रहस्य है? क्या पशु बुद्धिमान होते हैं? पशु में जन्म के समय से या बाद में कई तरह की शारीरिक शक्ति व एक तरह का खास गुण उसके पास प्राकृतिक होता है। इन सभी प्रश्नों के उत्तर अनंत कालों से तलाशी जा रही है।
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आमतौर पर हम कई तरह के गुणों से अन्य जीवों को सुसज्जित पाते हैं। जिनमें पशु-पक्षियों में खास तरह का विशेष गुण होता है। जैसे- जंगल का राजा शेर बहुत ताकतवर होता है। शेर के पास काफी बड़ा दांत होता है। उसका नाखून लंबा और धारदार नुकीला होता है। शेर का शरीर इतना बड़ा और मजबूत होता है कि वह बड़े से बड़े जानवर को भी शिकार कर मार गिराता है और अपने जबड़े में उठा ले जाता है। अगर हम बाज पक्षी पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि वह आसमान से कई किलोमीटर की ऊंचाई पर भी जमीन पर रेंगने वाले शिकार पर नजर बना सकता है। मछली पानी में तैर सकता है जैसे- शार्क मछली शिकार करती है। शार्क की सूंघने की शक्ति अद्वितीय होती है। इन सभी विशेषताओं में मनुष्य को रखा जाए तो हम उसे कहां पाते हैं? जरा विचार करिए!
एक मनुष्य के पास भले ही शारीरिक शक्ति अन्य जीवों के मुकाबले कोई विशिष्ट पहचान नहीं रखती हो लेकिन उसके पास एक ऐसी शक्ति है जो अन्य सभी जीवों से अलग व खास बनाती है। और वह है उसका कमाल का मस्तिष्क जिसके बल पर उसने आकाश, जल, जमीन सभी जगहों पर अपना कब्जा जमाया है। इसमें मनुष्य ने अपनी दूरदृष्टि व सूझ-बूझ का बखूबी इस्तेमाल किया है। लेकिन इन सबके बीच सवाल यह उठता है कि क्या आज हम जिस तकनीक के दौर में जी रहे हैं उसे मनुष्य ने इतनी आसानी से प्राप्त कर लिया है या यह एक लंबे संघर्ष व क्रमिक विकास के दौर से होकर गुजरा है।
आखिर एक मनुष्य के मानव बनने के पीछे का राज क्या है? पशु से मानव की एक अलग पहचान व अस्तित्व क्या है? क्या है मानवता और पशुता में अंतर? इन सभी प्रश्नों के जवाब या तो ढ़ूंढ लिए गए हैं या दुनियाभर के अलग-अलग बुद्धिजीवी वर्ग सदैव इस बात की तह में जाने का प्रयास करते रहते हैं। जाहिर सी बात है पशु और मनुष्य में शारीरिक व वैचारिक अंतर है, जिसके लिए बौद्धिक तत्व उसे पृथक करता है। बावजूद कुछ बातों में समानता भी नजर आती है जैसे- बालों का व नाखून का बढ़ना तथा मानव का सर्वाहारी होना।
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मुख्यतः जो अंतर पशु और मानव के बीच दिखाई देता है वह केवल शारीरिक नहीं है। जन्म से मानव भी अऩ्य पशुओं के समान ही है। इसमें कोई बहुत भारी भिन्नता नहीं है। हमारे नजदीकी रिश्तेदार के रुप में बंदर को माना जाता है। अब इन दो बातों के बीच मानवता और पशुता के बीच के अंतर व समानता के महीन बारीक चीजों को जानने का प्रयास करते हैं। अपनी प्रवृत्ति से एक मानव पशुता जैसा व्यवहार कर सकता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि मनुष्य हर मामले में अन्य जीवों से सर्वश्रेष्ठ है।
मेमथ के क्रमिक विकास के चरण में होमोसेपियन्स बनने की कहानी ही एक संगठित समाज व मानव को साथ में रहने की कला की शुरुआत है। आदिमानव ने आग, पहिया, पका खाना, मकान आदि की जरुरतों को जाना। खेती करने के अलावा उसने अपने से थोड़े भिन्न पशुओं को पालतू भी बनाया। संचार करने के लिए भाषा व प्रतीक चिन्हों की खोज की। विचारों के आदान- प्रदान करने की सामर्थ्यता व भाषायी मजबूती ने मानव को दूसरी परिधि में ला खड़ा किया है। मनुष्य ने कबीलों की तरह रहना सीखा। मुखिया बना तथा कई तरह के नियमों में उन्होंने परिवार, समाज व लोगों को नैतिक जीवन व मर्यादा में जीने का रास्ता दिखाया। ताकि व्यवस्थित जीवन जीया जा सके तथा समाज इन चीजों से विकसित होते गया इसमें कोई दो राय नहीं है।
आगे चलकर धर्म, ईश्वर, रीति-नीति, संस्कृति, सभ्यता आदि अनेक बातों के दौर से गुजरते हुए एक जीव से मानव बनने की कहानी की ओर एक मनुष्य का पदार्पण होता है। लेकिन ‘मानव’ शब्द को एक सकारात्मक तत्व के रुप में हम लेते हैं। आखिरकार एक मानव होना क्या है? मानव के भीतर सकारात्मक व नकारात्मक दोनों तरह के गुणपक्ष-अवगुण पक्ष होते हैं। कई तरह के भाव होते हैं, जिनमें हास्य, क्रोध, छल-कपट, स्वार्थ, चालाकी बहुत सी बातें हैं जो पशु से मानव को अलग करता है। तो फिर मानव किस बात पर इतना इतराता है और इस जीव जगत का खुद को स्वामी समझता है? मानव बोल पाता है, लिख पाता है, उसके पास सोचने-समझने, कुछ नया बना पाने की समझ है अर्थात उसके पास दिमाग है।
इस करामाती दिमाग की वजह से उसने अनेक सकारात्मक कार्य किया है और विकास-उन्नति के नए आयाम स्थापित किया है। लेकिन कहते हैं न विकास और विनास में बहुत बारीक अंतर एक दूसरे के सामानांतर दूरी दिखाई देता है। जहां विकास ने दुनिया को बदला है वहीं विनाश के डर ने मानव के स्याह काले चेहरे को भी उजागर किया है। विमान, रॉकेट व कम्प्यूटर ने क्रांतिकारी बदलाव किया है साथ ही परमाणु बम की चपेट में आज पूरा पृथ्वी इसकी जद में है। जिससे मानव समेत अन्य जीव का अस्तित्व संकट में है। कुछ वर्षों में कई जीव या तो विलुप्त हो गए हैं या विलुप्ति की कगार पर हैं।
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आखिर विश्व के सामने एक देश के रुप में या वैश्विक रुप में क्या समस्याएं दिखलाई देता है। मानव का केवल स्वकेन्द्रित विचारधारा अर्थात् स्वार्थी मन, स्वार्थवस सभी चीजों को हासिल कर लेने की प्रबल इच्छा ने अतिक्रमण की ओर उसे अग्रेसित किया है। आज इस जगत में अन्य जीवों के स्वतंत्रता व उसके अधिकार को छिन लिया गया है। लेकिन इन तमाम बातों के बीच एक मानव की कई विसंगतियों व अवगुणों की वजह से एक मानव दूसरे मानव का शत्रु बनता जा रहा है। इन विनाशकारी मानसिकता जिसमें हिंसा, ध्वेष, घृणा, मॉबलिंचिंग, धार्मिक उन्माद, दंगा आदि चीजों ने मूल मानवीय समस्याओं से हमारा ध्यान भटकाने की कोशिश किया है। समाज की प्रमुख समस्या हो सकती थी, बेरोजगारी, भूखमरी, अशिक्षा, कुपोषण, रोजगार, किसानों की आत्महत्या आदि। इन सभी समस्याओं ने एक आदर्श समाज के निर्मॉण व मानवता की भलाई के संदर्भ में एक गहरा संकट पैदा किया है। इसमें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय राजनीति, व्यावसायिक अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा, धार्मिक उन्माद व आतंकवाद भी है। और इन सबके पीछे अशिक्षा व जागरुकता की कमी आग में घी डालने का कार्य करती है। तकनीक का बेहतर प्रयोग एक वरदान के रुप में भी है और गलत प्रयोग अभिषाप भी बन रहा है।
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एक पशु हिंसक है या शांतिप्रिय यह उसकी प्रकृति से हमें पूर्व से ज्ञात होता है। जैसे- सर्प विषैला है, शेर हिंसक है। किन्तु एक मानव के व्यवहार से यह ज्ञात कर पाना कठिन है कि कब उसका स्वभाव धोखा देनेवाला होगा या हिंसक होगा। मानव कब छल से हमला करेगा और बड़ा नुकसान कर देगा इस प्रवृत्ति पर प्रकृति भी मौन है। इसलिए मानव का ऐसा दुर्गुण ही उसे मानव के मानवता गुणों से पशु के पशुता की ओर बढ़ाता है। अब इसमें पशुता से तात्पर्य उनके सीमित जीवन, व उनके जंगली अपरिष्कृति जीवन से है। जिसमें वे अविकसित जीवन जी रहे हैं। वातावरण के अनूकूल जो ढल नहीं पाते वे विलुप्त हो जाते हैं। अगर ‘मानवता’ का ऐसे ही क्षरण होता रहा तो एक समय ये भी विलुप्ति की कगार पर पहुंच जाएगा। पशु में वो अवगुण नहीं है जो मानवों में है। चोरी, हत्या, व्यभिचार, धोखा इन सभी दुर्गुणों से पशु रहित हैं। प्राकृतिक जीवन जीना हम पशुओं से सीख सकते हैं। पशु प्रकृति को गंदा व विकृत नहीं करते वे प्राकृतिक जीवन जीते हैं। व उसी के अनुरुप आचरण करते हैं। सूर्य के उगने के साथ उठते हैं और सूर्य के अस्त होने के साथ सो जाते हैं। अपना भोजन परिश्रम करके हासिल करते हैं।
इसीलिए जब भी श्रेष्ठ विद्यार्थी के गुणों की तुलना की गई जो पशु-पक्षियों से की गई थी…
अच्छे विद्यार्थी के पांच लक्षणः-
काग चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा, अल्पहारी, गृहत्यागी।
अर्थात् यहां पर कहा गया है कि कौवे (काग) के समान अपने भोजन को पाने के लिए लगातार प्रयास करते रहना चाहिए। बगुले (बको) के समान हमारा ध्यान होना चाहिए। कुत्ते (स्वान) के समान हमारी निद्रा होना चाहिए। कम भोजन व अपने घर से कम मोह रखने वाला होना चाहिए। इन जीवों के गुणों से मानव बहुत कुछ सीख सकता है।
अगर मानव इतना श्रेष्ठ है तो फिर उसे एक सच्चा मानव बनने की क्या आवश्यकता व उद्देश्य हो सकता है? एक मानव के रुप में हम अपने व दूसरों के अधिकारों व स्वतंत्रता का सम्मान क्यों नहीं कर सकते? चाहे व अन्य कोई जीव भी क्यों न हो। अपने नैतिक जवाबदारी की सीमा में रहते हुए अपना जीवन जीएं। अतिक्रमणकारी मानसिकता को त्यागकर हमें स्वयं के अस्तित्व को पहचानना होगा कि इस जगत में अन्य जीवों के समान ही हम भी आए हैं और प्रकृति हमें भी उतना ही अधिकार प्रदान करती है, जितना अन्य जीवों को किया है।
तो आइए एक मूलमंत्र को अंगिकार कर हम कुछ मात्रा में अपने मानव होने के अस्तित्व पर विचार करें…
“जीओ और जीने दो”।
– Amit K. C.
(शोधार्थी व पत्रकार)
(लेखक दिल्ली के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में जनसंचार व पत्रकारिता के पीएचडी शोधार्थी व विचारक तथा पत्रकार हैं। यह आलेख उनका नीजि विचार है। हमारा वेबसाइट इन तथ्यों व आंकड़ों की प्रमाणिकता का दावा नहीं करता है।)
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